नवधा भक्ति – वास्तविक भक्ति के नौ चरण

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नवधा भक्ति – उद्देश्य

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जैसा की नाम से पता चलता है नवधा अर्थात 9, और नवधा भक्ति मतलब भक्ति के 9 आधार। रामचरितमानस की चौपाइयों में, महान संत श्री तुलसीदास जी ने भगवान् श्री राम और माता शबरी के वार्तालप को आधार बना कर भक्ति के उन 9 चरणों को विस्तार पूर्वक समझाया है जिनपर चलकर ही हम भक्ति को वास्तविक रूप से प्राप्त कर सकते हैं।

अब ऐसे में आपके मन में सवाल आ सकता है की इस नवधा भक्ति को जान ने की क्या जरुरत है क्योंकि हम में से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में भक्ति कर ही रहा है। उदाहरण के तौर पर कोई व्यक्ति रोज मंदिर जा रहा है, कई प्राणी नित्य रोज किसी ना किसी तीर्थ स्थान पर जाते रहते हैं , तो कोई समस्त संसार के सामने दान धर्म करके अपनी भक्ति प्रदर्शित करने में लगा हुआ है।संत तुलसीदास जी ने हम सबके इसी भ्रम को दूर करने हेतु भक्ति के वास्तविक मार्ग को हमारे सम्मुख रखा है जो रामायण के वार्तलाप पर आधारित है।

केहि विधि अस्तुति करूँ तुम्हारी | अधम जाती मैं जड़मति भारी ||
अधम ते अधम अधम अति नारी | तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ||

यह प्रसंग रामायण काल के उस समय से सम्बंधित है जब भगवान श्री राम अपने 14 वर्ष के वनवास को व्यतीत करते हुए विभिन्न वनों में भ्रमण कर रहे थे और भ्रमण करते हुए  एक दिन वह माता शबरी के आश्रम में पहुंचे। माता शबरी भगवान श्री राम की अनन्य भक्त थी और कई वर्षों से उन्ही की प्रतीक्षा में एक एक दिन गिन गिन कर काट रही थी। माता शबरी का सम्बन्ध तत्कालीन समय की उस जाती से जाना जाता है जिसको उस समय निम्न श्रेणी में रखा जाता था और ऊपर से उस समय स्त्री साक्षरता का इतना ज्यादा प्रचलन नहीं था जिस कारण स्त्रियों को पढ़ाया नहीं जाता था। इसी बात को आधार बना कर माता शबरी भगवान से पूछती हैं की
“मैं जो नारी होने के साथ साथ एक नीची जाती से सम्बन्ध रखती हूँ और पढ़ी लिखी नहीं हूँ अर्थात जड़मति भी हूँ; तो इन परिस्थितियों में मैं किस तरह से आपकी स्तुति अर्थात आपकी भक्ति कर सकती हूँ?”

माता शबरी के इस सवाल पर भगवान् श्री राम कहते हैं की

कह रघुपति सुनू भामिनि बाता | मानहुँ एक भगति कर नाता ||
जाती-पाती,कुल,धर्म,बड़ाई | धन,बल,परिजन,गुण चतुराई ||
भगति हिन् नर सोहै कैसा | बिनु जल बारिद देखिये जैसा ||
नवधा भक्ति कहूं तोहि पाहि | सावधान सुनू धरु मन माहीं ||

रघुपति श्री राम यहाँ माता शबरी की समस्त शंकाओं को दूर करते हुए समझाते हैं की केवल एक भक्ति का नाता ही मेरे ह्रदय में स्थान पाता है। जात, धर्म, कुल या आर्थिक और सामाजिक मान बड़ाई होने के बाद भी यदि कोई प्राणी भक्ति से विमुख है तो वह व्यक्ति उस बादल के समान है जो बिना जल बरसाए ही आता और चला जाता है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए प्रभु बतलाते हैं की मैं आपको नवधा भक्ति का मार्ग बताता हूँ जिसपे चलकर ही मुझ से नाता जोड़ा जा सकता है, और आप इसको सावधानी से ध्यानपूर्वक सुनो।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा | दूसरी रति मम कथा प्रसंगा ||

अर्थात हे शबरी मेरी भक्ति जो मेरे से जुड़ने का एक मात्र साधन है उसके प्रथम चरण में किसी सच्चे संत का साथ और सत्संग से जुड़ना शामिल है ताकि सच से साक्षात्कार हो सके और इस झूठे जग की वास्तविकता हमारे सामने प्रगट हो सके।
अब जब सच्चे संत से हमारा संग हो जाये तो दूसरा चरण है की जहाँ पर भी मेरी कथा या सत्संग प्रवचन हो रहा हैं वहां पर पूरी श्रद्धा और मन से भजन कीर्तन में शामिल होना।

गुरु पद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान | चौथी भगति मम गुण गन करइ कपट तजि गान ||

यहाँ प्रभु श्री राम, गुरु के चरण कमलों की सेवा करने को भक्ति का तीसरा चरण बता रहे हैं और साथ ही इस बात पर भी जोर दिया है की सेवा का अभिमान मन में नहीं आना चाहिए। चौथे चरण की और बढ़ते हुए भगवान् कहते हैं की कपट रहित होकर मेरे गुण गान में लीन रहना भक्ति का चौथा चरण है।

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा | पंचम भजन सो बेद प्रकासा ||

प्रभु और उनके मन्त्र पर दृढ विश्वास जिसके बारे में वेदों ने भी जोर दिया है, यह भक्ति का पांचवां चरण है।

छठ दम सील बिरति बहु करमा | निरत निरंतर सज्जन धरमा ||

भक्ति के अगले चरण के बारे में बताते हुए भगवान् कहते हैं की इन्द्रियों के भोग विलास पर नियंत्रण, शील आचरण और बाहरी कर्म कांडों को त्याग कर सज्जन प्राणियों का संग तथा सेवा धर्म , भक्ति का छठा चरण है।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा | मोते संत अधिक करि लेखा ||

भगवान् के अंदर सम्पूर्ण संसार समाया हुआ है और सातवें चरण का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं की आप पूरे संसार को मुझ में ही समाया हुआ जानकर सबको समान भाव से देखें और संतों को मुझ से भी अधिक मान कर उनक सम्मान करें।

आठवँ जथालाभ संतोषा | सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ||

यहाँ प्रभु श्री राम , लोभ का दमन करने हेतु जो कुछ भी प्राप्त है उसी में संतोष करने पर जोर देते हैं। यही भक्ति आठवां चरण है जिसमें संतोष और सब प्राणियों में निर्दोष दर्शन पर जोर दिया गया है।

नवम सरल सब सन छलहीना | मम भरोस हियँ हरष न दीना ||

अंतिम चरण का उल्लेख करते हुए भगवान् बतलाते हैं की सरल जीवन और प्रत्येक जीव से छल कपट हीन व्यवहार करते हुए मुझ पर पूर्ण विश्वास के साथ, सुख और दुःख में एक समान रहना मेरी भक्ति का नौवां चरण है।

नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई | नारि पुरुष सचराचर कोई ||
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें | सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें||
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई | तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ||

उपरोक्त वर्णित भक्ति के 9 चरणों में से, कोई प्राणी चाहे नारी या पुरुष, जड़ या चेतन जो भी किसी 1 भी चरण को प्राप्त कर लेता है वो मुझे अति प्रिय होता है। पर तुमने तो हे भामिनि! भक्ति के सभी 9 चरणों को दृढ कर लिया है और इसीलिए जो गति, योगियों को भी दुर्लभ है वो आज तुम्हे सुलभ हो गयी है।

वर्तमान जीवन में नवधा भक्ति

तो जैसा की आप सबने ऊपर देखा, भगवान श्री राम ने सभी प्रकर के भेद भाव का खंडन करते हुए, सिर्फ और सिर्फ भक्ति को ही अपने से जुड़ने का एकमात्र तरीका बताया है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति अपने ऊंचे कुल या किसी विशेष जाती का होने के कारन इस अभिमान में है की उसके लिए प्रभु से मिलाप सुगम है तो यह उसकी भूल मात्र ही है क्योंकि बिना भक्ति के मनुष्य उस बदल के सामान है जो बिना वर्षा करे ही आते हैं और चले जाते हैं।

प्रथम तो इस उपदेश में तुलसीदास जी ने जाती-धर्म-लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करने के साथ साथ, दूसरी विशेष बात पर जोर दिया है जो की है भक्ति की वास्तविकता।

वर्तमान समय में ये बहुत अधिक प्रासंगिक है क्योंकि आज के इस दिखावट भरे ज़माने में अधिकांश लोग वास्तविक भक्ति से दूर होकर सिर्फ लोक दिखावा करते हैं। मसलन अव्वल तो कोई भजन कीर्तन में बैठता ही नहीं और यदि कभी किसी को देख कर ऐसा करता भी है तो सबसे पहले सोशल मीडिया पर अपनी फोटो और रील डालकर लोगों के सामने खुद को महान् दिखाने का असफल प्रयास करते हैं। या किसी कीर्तन जागरण में जाकर प्रभु भक्ति में लीन होने की जगह ख़ान पान, फोटो वीडियो और लोगों की निंदा बुराई में लगकर सारा समय यूं ही व्यर्थ गंवा देते हैं।

ऐसे में संत तुलसीदास जी की ये चौपाइयां, सभी प्रकार के कर्म काण्ड और आडंबरों का खंडन करते हुए, हमें वास्तविक भक्ति की सही दिशा का ज्ञान दे सकती हैं। अतः हम सबको भी, इस महान रचना से सीख लेते हुए, अपनी भक्ति को सही दिशा में मोड़ना चाहिए क्योंकि दिशा बदलने से दशा भी स्वयं ही बदल जाती है।

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